अपना गांव
इस संकटकाल में हर मजदूर अपने घर पहुंचना चाह रहा था। कोई भूख-प्यास से बेहाल तो कोई थका हुआ निढाल। फिर भी एक उम्मीद थी कि अपने गांव पहुंच जाएंगे। इसी उम्मीद से रामदीन का परिवार भी चल रहा था। पत्नी चंपा, दो बच्चे कालू और भूरी के साथ ही छोटा भाई और उसका परिवार भी था।
रात कहीं भी सड़क किनारे, खेत खलिहान में गुजार लेते और सुबह फिर से पदयात्रा शुरू हो जाती ।
रास्ते में कुछ समाजसेवी संस्थाओं ने भोजन पानी की व्यवस्था की थी। इससे उन्हें ही थोड़ी राहत मिलती।
एक दिन ऐसे ही एक तंबू में नाश्ता करते हुए पसीनेे से बेहाल भूरी की नजर दूर खड़ी इमारत पर पड़ी। वह चहक कर रामदीन से बोली, 'बाबा देखोो ऐसे कितने बड़े़े़े़े़े़े-बड़े घर आपने और माई ने बनाए है।'
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रामदीन ने खुश होकर कहा, 'हां रे यह तो बात सच है । बहुतबहुत बनाए हैं।'उसने मुस्कुरा कर अपने गमछे से भूरी के माथे से पसीना पोंछ दिया।
थोड़ी देर में एक बड़ी सी कार आकर रुकी। उसमें से दो लोग बाहर आए। कार के अंदर बच्चे बैठे थे। तभी कालू ने अपने चाचा से कहा, 'ओ चाचा! देखो, यह तो वैसी ही गाड़ी है जो आपने सुधारी थी एक बार। इतनी बड़ी गाड़ी, इसमें कुत्ता ठंडा रहता न अंदर। इसमें बैठकर तो दूर दूर जा सकते। हैं न चाचा।'
चाचा ने कालू के चीले हुए पैर पर कपड़ा मांगते हुए कहा,'हारे ऐसी बहुत सी गाड़ी सुधारी है।अब चल कर देख, अब तो तेरे पैर से खून नहीं आ रहा ना।'कालू खुशी से हटकर चलने की कोशिश करने लगा। वह चहक कर बोला,'अब खून नहीं आ रहा, चलो अब सब उठो गांव जाना है ना। अपने घर।'चंपा ने सबको सत्तू खिलाया और सब उत्साह से अपने गांव की ओर चल पड़े।।।
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